निर्मल-क्षण जब संग मिले ,चार धरा समतल 

 ग्रस्त-ग्रंथ छिद्रों से रस टपक पड़े भूतल पर ।

 था ठौर जहां पथिक विश्राम जहाँ  

काष्ठ-जीवंत-प्राण !

अवसर की उपेक्षाओं से निकल उपजा जब 

हृदय से सहज ही ,

 थी तृप्त धरा नवरस चहूँ ओर 

प्रदीप प्राण अक्षुण्ण धरा ।

किंतु उस निर्जन राग जिससे था शंकित अर्थ मेरा 

 और यह चक्षु सदोष-आसक्त !

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