लेनिन चौक : लिट्टी-समोसे वाले चक्कर चौक से आगे पड़ता है !

सीधी बात है ! किसानों के आंदोलन के लिए मुझे कुछ कहना नहीं , एक पर जुल्म हुआ उसने अपना विरोध अपने तरीके से व्यक्त किया है ।
आंदोलन का दूसरा पहलू दबाव भी होता ही है उन्होंने अपने तरीके से बनाया है तो सत्ता भी प्रतिक्रिया यानी अपने प्रकार प्रकार का दबाव बनाएगी ।
तैयार रहे हिंसक घटनाओं की जिम्मेवारी से बचना सम्भव नहीं है , होना भी नहीं चाहिए आंदोलन और संघर्ष  के तौर तरीकों को सीखना जरूरी है ।

मुझे दया और हंसी उन झंडुबाम लिए भटके हुए नौजवानों पर आ रही है जो एक तो गांधीजी को गरियाते हैं  मगर दबी जुबान से और दूसरे जो तथाकथित सामंतों को गरियाते फिरते हैं फ़ैशनेबल जुबान से ।
अब भइया गाँधीजी वाली आंदोलन सुरक्षित एवं अहिंसात्मक तो भूल ही जाएँ सत्ता वाले और बामपंथी दोनों ही और दूसरा ये की, बामपंथ के रंगरूट जो कुलाँचे मार मार के भाव विभोर तो हो रहे, लेकिन कमोबेश ये वही किसान/सामंत [मजदूर वर्ग तो नहीं लगते मेरी मोटी बुद्धि से ] हैं  जिनसे आपको आजादी चाहिए वही जिनको सत्ता पक्ष खालिस्तानी बताती है । शर्म करें और स्थिति के काबू में आने में सहयोग करें ।

    गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं
जय जवान जय किसान

राजनैतिक-दुष्ट-महत्वाकांक्षा

राजनैतिक-दुष्ट-महत्वाकांक्षा अपने चरम पतित स्तर पर दिल्ली में , अत्यंत क्षुब्ध हूँ !
वैश्विक-महामारी में यूरोपियन यूनियन के द्वारा जो पतितता देखने को मिला उसका पूर्ण विकसित स्वरूप दिल्ली में केजरीवाल की राजनीति में पूर्ण उभार के साथ देखता हूँ !
भारत के संदर्भ में एक संघीय ढांचे की रीढ़ तोड़ने और पोस्ट-कोरोना राजनैतिक परिवेश की डरावनी झलक अभी से दिखने लगा है ।
आपदा को अवसर बनाना जैसे सैद्धांतिक दुष्टता का सफलतापूर्वक क्रियान्वयन और धूर्त-चाटुकार-लोलुपों द्वारा केजरीवाल के इस नरभक्षी भोज का समर्थन कल्पना से परे है ।

#लेनिन चौक : लिट्टी-समोसे वाले चक्कर चौक से आगे पड़ता है !

#लोकतंत्र_में_मेरे_हालात

हालात की कहूँ तो बात ये है कि ….

जब महान हिंदुस्तान आजाद हुआ और डेमोस क्रेसी को लागू करवाया गया तब सबसे महान कार्य यह हुआ कि जिस महान मानव ने किसी को एक ढेला उठाकर नहीं मारा उसे लोकतांत्रिक तरीके से गोली मारी गई हालांकि डंडे से मारते तब मानसिकता सामंती बताया जा सकती था ।
दूसरी बात गौर करने की ये भी है वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी था ये महज बेबक्त कोसने की चीज औद्योगिक क्रांति नही थी , हाँ बन्दूक औद्योगिक क्रांति की उपज जरूर रही लेकिन दृष्टिकोण विशुद्ध वैज्ञानिक था ठीक वैसे जैसे प्राणी विज्ञान का कोई शोधछात्र आपको यह बताकर आश्चर्य में डाल दे कि सफेद चूहे लैबोरेटरी परपस से पैदा किए जाते हैं और उनको मारने के लिए क्लोरोफार्म का प्रयोग करना अधिक कष्टदायी होता है । इसके बजाए अगर सफेद चूहे के सर को एक हाथ से पकड़ा जाए और दूसरे हाथ से उसकी पूँछ को झटके से खींचकर उसे मौत की नींद मानवता के नाम पर सुलाया जाए ।

आजादी से पहले अंग्रेजों के नाम पर ऐसे ही एक मौत की तरकीब आजमाने का इल्जाम है, हालांकि इसमें मुझे शंका है क्योंकि इसमें भी ज्ञान की बात है और भारत विश्व गुरू रहा है जिसमें मुझे कोई शंका नही ।

विज्ञान और लोकतंत्र हमारी बपौती है हमारे पास लोग हैं उनके गुरू है उनके घंटाल है घंटालों के नेता है नेताओं का लोकतंत्र है जो हमको मरते दम तक प्रिय है ।
#मेरे_हालात_का_लोकतंत्र

तम/Tam

झिंगुर की चटक आवाज के दर्द को

आज ही पहचान पाया उस वेदना को

जो उधृत होती है तुम्हारे ही दृष्टिपथ में और संचित भी

तम ! नदी के प्रवाह में दीपक को तुम्हारे साथ ही

आज ही चुपचाप बहते हुए देखा है

पहचान पाया उस व्यक्ति के तटस्थता को आज ही

जिसने अपने जलते हृदय को पहले अपने हाथों पर धरा, फिर उतार दिया इस नदी की धारा में

तुम्हारे साथ ही तो वह भी व्यक्त हुआ था ।

तम! आज ही सुन सका तुम्हारे अव्यक्त चीखों को

जो हमेशा मुझे बिलाड़ के भ्रम में स्वीकार्य था ।

तम! तुम निष्ठुर नहीं थे

तुम्हारी अपरिमेय रिक्तता ही

मेरे विकारों का वहन करती थीं ।

तम! सभ्यतायें मुझे तोड़ रही हैं

बाह्य परिष्करण मुझे अब अशुद्ध करती जा रही है

तुम्हारे गहन स्याह निर्लेष रश्मियों में लिपटकर

तम! एक बार फिर तुम में व्यक्त होना चाहता हूँ ।

#लेनिन चौक : लिट्टी-समोसे वाले चक्कर चौक से आगे पड़ता है !

भारत मे ‘इटली’ का बाप है भाईसाब ! मेकियावेली तो राजनीति से ‘नैतिकता’ निकलने की बात करता था, लेकिन उनके पापाजी ने ‘निकालने’ में से भी ‘नैतिकता’ निकाल दिया ।
लेकिन , देखने वाली बात यहाँ यह है ‘निकालने’ की सुरुआत इटली से ही प्रारंभ हुआ है ! #70_चोट_सुनार_के_तो_5_लुहार_के

तथाकथित श्रेष्ठता/So-called superiority

गुलाम पैसा चुकाने पर भी गुलामी से मुक्त नहीं हो सकता था, लेकिन गिरमिटियों के साथ केवल इतनी बाध्यता थी कि वे पांच साल बाद छूट सकते थे। गिरमिटिये छूट तो सकते थे, लेकिन उनके पास वापस भारत लौटने को पैसे नहीं होते थे। उनके पास उसके अलावा और कोई चारा नहीं होता था कि या तो अपने ही मालिक के पास काम करें या किसी अन्य मालिक के गिरमिटिये हो जायें। वे भी बेचे जाते थे। काम न करने, कामचोरी करने पर प्रताड़ित किये जा सकते थे। आमतौर पर गिरमिटिया चाहे औरत हो या मर्द उसे विवाह करने की छूट नहीं थी। यदि कुछ गिरमिटिया विवाह करते भी थे तो भी उन पर गुलामी वाले नियम लागू होते थे। जैसे औरत किसी को बेची जा सकती थी और बच्चे किसी और को बेचे जा सकते थे। गिरमिटियों (पुरुषों) के साथ चालीस फीसदी औरतें जाती थीं, युवा औरतों को मालिक लोग रखैल बनाकर रखते थे और उनका भरपूर यौनशोषण करते थे। आकर्षण खत्म होने पर यह औरतें मज़दूरों को सौंप दी जाती थीं। गिरमिटियों की संतानें मालिकों की संपत्ति होती थीं। मालिक चाहे तो बच्चों से बड़ा होने पर अपने यहां काम करायें या दूसरों को बेच दें। गिरमिटियों को केवल जीवित रहने लायक भोजन, वस्त्रादि दिये जाते थे। इन्हें शिक्षा, मनोरंजन आदि मूलभूत ज़रूरतों से वंचित रखा जाता था। यह १२ से १८ घंटे तक प्रतिदिन कमरतोड़ मेहनत करते थे। अमानवीय परिस्थितियों में काम करते-करते सैकड़ों मज़दूर हर साल अकाल मौत मरते थे। मालिकों के जुल्म की कहीं सुनवाई नहीं थी।(wikipedia)
संदभों में `एग्रीमेंट’ बहुत महत्वपूर्ण है जो मूल रूप से गिरमिटिया का पर्याय या विशिष्ट पहचान करवाती है ।
समस्या है ‘बिहारी ‘ के प्रति देश में व्यापक घृणा और अमानवीय व्यवहार का जिसके मूल कारण कोलोनियल मानसिकता का प्रभाव है किन्तु दोष ‘ब्राम्हणवाद’ नाम के जादूई शब्द में दिख जाता है जहाँ कोई भी औसत बुद्धि यह बात को लेकर अपने तर्क को प्रस्तुत कर देता है ।

देखा जाए तो भारतीय सभ्यता-संस्कृति पर सरसरी नजर रखने वाला भी यह देख सकता है कि काल एवं सामाजिक प्रभुत्व की दृष्टि से ऐसा कभी नहीं रहा जब ब्राह्मण सत्ता के केंद रहे वैदिक से पौराणिक तक राजपूत राजाओं का ही इतिहास रहा फिर मौर्य ,गुप्त वंश उसके बाद मुगलों और अंग्रेजी शासन ।
ऐसा कोई काल नहीं कहा जा सकता जहाँ से सनातन संस्कृति के पोस्टमार्टम में ‘पोषण’ दिखता हो पौराणिक कथाओं के अतिरिक्त । मुझे मोह भी नहीं कि पोषण के अवशेष मिले । जिसका कारण उस प्रभुत्व की लालसा जो आपको दूसरों से घृणा का अवसर और तथाकथित श्रेष्ठता प्रदान करती है वह मुझे मुफ्त में ही मिल गया है।

खैर बात कुछ और भी हो सकती है शोषण साश्वत चीज है करते हुए अघाते रहे लेकिन अंग्रेजियत से कुछ सीखना चाहिए तो वह है जेंटलमैन बनने और कुतर्क-क्रिया में ‘स्थान’ का चयन ।
आपके और हमारे दोनो के पूर्वजों का इतिहास एक ही है बिहारी बनाम अन्य भारतीय में एक समानता है कि दोनों ही गुलाम बना करते थे कभी तथाकथित विदेशी के अब उनकी सिखाई गई अनुकूल-आचरण (भारतीयों से किसी प्रकार की श्रेष्ठता का अनुभव) । लेकिन बड़े खेद के साथ यह मजबूर होकर मानना पड़ता है कि इस सौभाग्य के छीके के सर पर टूटने से भी अंततः आप बिहारी नहीं पर भारतीय ही रह जाएंगे ।
ग्रीन कार्ड के लिए निवेश योग्य पूंजी बन भी जाय तब भी आप अपने चमड़ी से भूरे ही दिखेंगे , मित्रता साथ वालों में ही संभव है यह तो मानते ही होंगे !
फक्र करिये यहाँ अधिकार है कुत्ते या बिहारी पालने का वहाँ परमिट मिलेगी कि आप कहाँ ‘टहल’ सकते है , ‘टहलाने’ की बात तो दूर है ठीक वैसे ही कपोल कल्पित जिसमें बताया जाता है कि स्वाति नक्षत्र में भयंकर सांपों के मुँह में ओस की बूंद गिरने से “मणि” बनता है ।
#मुस्कुराते_रहिये_आप_दिल्ली_विश्वविद्यालय_में_हैं

“चे” गेवारा/ Ernesto “che” Guevara

“चे” गेवारा [ 14 जून 1929] का बर्थडे कल था और याद आज आया, उनके जीवनी लेखक जॉन एंडरसन ली उनके व्यक्तित्व के बारे में कहते हैं “चे एक प्रतीक है व्यवस्था के खिलाफ युवाओं के गुस्से का, उनके आदर्शों की लड़ाई का”

‘प्रतीक’ क्रांति के लिए विशिष्ट महत्व की बात है , यह ‘भजने’ का साधन नहीं जो संख्या या इष्ट प्राप्त करने में सहायक हो। अज्ञेय ‘प्रतीक’ की व्याख्या में मानते हैं कि प्रतीत के आधार में एक समान गुण की पहचान होती है। समानता को आधार बनाकर एक तरफ समानता की पहचान के सहारे चलने वाले सोच की परंपरा और दूसरी तरफ तर्क के आधार पर चलने वाली परंपरा दोनों काम करती है , मतलब कि हमारे मन की कई प्रवृत्तियों में से एक है तर्क और इसी के समानांतर एक प्रक्रिया है जो समानता या सादृश्यता के आधार पर चलती है।
‘प्रतीक’ में सादृश्य के प्रत्यक्ष या तार्किक आधार के आलावा एक और महत्वपूर्ण प्रक्रिया को समाहित करता है और वह है बौद्धिक प्रक्रिया। यही बौद्धिक प्रक्रिया प्रतीक में अतिरिक्त सोपान का समावेश करती है।

मां

किताब के खांचो मे रोज ही कुछ फंसाकर,
मैं जब भी उंघते हुए सो जाता हूँ !

तुम अनथक , उस खोह मे मेरा कुछ समेटे हुए
या फिर ,चुपचाप उस अथाह आसमानी तारों वाले सागर में ,
भोर होने तक अकेले मुझे ताकती रहती हो ।

कभी कभार जब कुहरा जादा होता है
तो मैं किताब मे नये खांचे नहीं लगाता, सो जाता हूँ ।
उन दिनों के साथ जो तुमने मेरे लिए अबतक जस का तस रखा है ।

पता है मुझे ! मैं इस धुंध मे तुम्हारे नजर से छिपने के लिए घुसकर बैठा हूँ ,
घने घुप्प अंधेरे मे तुम्हारे बिना कोई रास्ता सही दिशा में नहीं जाता ।

लेकिन मैंने इस दुनिया में तुम्हारे अलावा किसी ऐसे को नहीं देखा ।

निरंतर पंखा झल्लाते पसीने से तर
हवा के एक कतरे को अपनी तरफ मोड़ नहीं पाईं ।

तुम थके हुए हो ,मुझे ओझल हो जाने दो !

कब तक? 

रातें सर्द हैं घनी हैं 

बदन को जकड़  रहीं,

देखता हूँ ढूंढता हूँ

कुछ नरम सा गर्म सा 

कुछ हम उम्र कुछ बूढ़ी हथेलियां !

लिहाफ कब तक ? 

गहराते धुंध मुझे दबोचे निचोड़ रही हैं   

कमर- एड़ियां जकड़ती दर्द अब जर्द हो रहीं 

एकांत कराह कब तक तक ?

 हथेली मसलते हुए बर्फीले हमसफरी को झटक दिया

 बचे हुए गर्म सांसों को भीतर जप्त कर ,

अचानक किसी ठंडी हथेली ने नब्ज टटोल कसकर जकड़ लिया है ! सहर तक शायद ही छोड़ दें अपनी जकड़ से ।
अपने सेल फोन से बचते गानों के बोल समझ नहीं आ रहे, बस उसकी आवाज को बढ़ा बढ़ा कर अनसुना कर रहा मैं !जकड़े हुए नब्ज में ऊष्मा भी अब ठंडी हो रही 

‘ व्हिस्की ‘ की ‘बेफिक्र’ घूंट अब अनंत सर्द रात्रि की फिक्र में मुझे सुलानेे व्यूह बना रहीं हैं

गर्म उदास बोझिल स्वप्न कब तक ?

निर्जन राग /Nirjan raag

निर्मल-क्षण जब संग मिले ,चार धरा समतल 

 ग्रस्त-ग्रंथ छिद्रों से रस टपक पड़े भूतल पर ।

 था ठौर जहां पथिक विश्राम जहाँ  

काष्ठ-जीवंत-प्राण !

अवसर की उपेक्षाओं से निकल उपजा जब 

हृदय से सहज ही ,

 थी तृप्त धरा नवरस चहूँ ओर 

प्रदीप प्राण अक्षुण्ण धरा ।

किंतु उस निर्जन राग जिससे था शंकित अर्थ मेरा 

 और यह चक्षु सदोष-आसक्त !